झारखंड का मध्यकालीन इतिहास : दुर्जनशाल से तिलका मांझी तक का संघर्षपूर्ण सफर

विषय सूची

भूमिका

मध्यकालीन इतिहास यह संकेत देता है कि मुगल साम्राज्य के प्रभाव के बावजूद छोटानागपुर का पठारी क्षेत्र सीधे दिल्ली या अन्य बाहरी सल्तनतों के नियंत्रण से प्रायः मुक्त रहा। इस क्षेत्र के जनजातीय शासकों की शासन प्रणाली मगध से लेकर दिल्ली के सम्राटों की परंपरागत शासन व्यवस्था से सर्वथा भिन्न थी। यहाँ राजा और प्रजा के बीच का अंतर तक धुंधला प्रतीत होता था, जिससे बाहरी लोग आश्चर्यचकित हो जाते थे।

इस समय उत्तर भारत में तुर्क शासक कुतुबुद्दीन ऐबक ने सत्ता स्थापित कर ली थी, परंतु जनजातीय बहुल झारखंड क्षेत्र उनसे अछूता बना रहा।

छोटानागपुर के मूल निवासी

छोटानागपुर पठार के आदिम निवासियों की पहचान करना जटिल कार्य है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि वर्तमान में जिन्हें मूल निवासी माना जाता है, वे गंगा-सोन घाटी से पलामू के रास्ते आकर यहाँ बसे और पहले से रह रहे आदिवासियों को विस्थापित कर दिया। उन पुराने निवासियों का कोई स्पष्ट ऐतिहासिक नाम शेष नहीं बचा है।

ऐसा माना जाता है कि उरांव और मुंडा जनजातियाँ प्रारंभ में पश्चिम भारत के नर्मदा तटवर्ती क्षेत्रों से होकर पूर्वी भारत में सोन घाटी के रास्ते छोटानागपुर पहुँचीं।

प्राचीन आर्यों के इस क्षेत्र में बसने के कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलते। संभव है कि मगध साम्राज्य के उत्कर्ष काल में आर्यजन व्यापारिक या धार्मिक प्रयोजन से ही सीमित मात्रा में यहाँ आए हों, जिनके प्रमाण मानभूम क्षेत्र में मिलते हैं।

मध्यकालीन झारखंड

मध्यकालीन इतिहासकारों ने छोटानागपुर क्षेत्र को ‘झारखंड’ अर्थात ‘जंगल का देश’ के रूप में वर्णित किया है। यह भी उल्लेख मिलता है कि यहाँ सफेद हाथी पाए जाते थे। एक प्रसिद्ध किस्सा है कि शेरशाह ने सफेद हाथी लाने के लिए झारखंड पर चढ़ाई की थी। 1585 में अकबर की सेना ने झारखंड पर हमला किया, जिसके बाद यहाँ के राजा ने कर देना स्वीकार किया।

जहाँगीर के समय एक और रोचक घटना सामने आती है, जब झारखंड के राजा दुर्जनशाल ने सम्राट को एक हीरे की खामी के बारे में बताया। राजा की बात प्रमाणित करने के लिए दो भेड़ों की लड़ाई कराई गई, जिनके सिरों में दो अलग-अलग हीरे बंधे थे। जिस हीरे में खामी थी, वह लड़ाई में टूट गया। इससे प्रभावित होकर जहाँगीर ने राजा को रिहा कर दिया।

इस घटना के बाद झारखंड में बाहरी लोगों का प्रवेश बढ़ा — जिनमें पुरोहित, सिपाही, व्यापारी आदि शामिल थे। धीरे-धीरे राजदरबार में राजसी व्यवस्था की स्थापना होने लगी, परंतु 16वीं शताब्दी तक बाहरी प्रभाव सीमित ही रहा और जनजातीय सौहार्द बना रहा। आने वाले कई लोग ‘आदिवासीकरण’ की प्रक्रिया से गुजरकर स्थानीय बन गए।

संताल परगना का इतिहास

झारखंड के संताल परगना क्षेत्र का ऐतिहासिक और सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्व रहा है। यह क्षेत्र राजमहल की पहाड़ियों से घिरा हुआ है, जिसके उत्तर में गंगा बहती है। यही गंगा पूरब की ओर मुड़ती है और सेना के आने-जाने के लिए एक संकीर्ण गलियारा बनाती है, जिसे ‘तेलियागढ़ी दर्रा’ कहा जाता था।

शाहजहाँ ने अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह कर रहे लोगों को दबाने के लिए यहाँ चढ़ाई की थी और नवाब इब्राहीम खान की हत्या की थी। 1592 में अकबर के सेनापति मान सिंह ने राजमहल को बंगाल की राजधानी बनाया, जो बाद में ढाका स्थानांतरित कर दी गई। पुनः 1639 से 1660 तक राजमहल राजधानी बना रहा।

इस क्षेत्र के मूल निवासी ‘सौरिया पहाड़िया’ कहलाते हैं, जो एक लड़ाकू और वीर जनजाति रही है। इनका विरोध मुगलों और बाद में अंग्रेजों के लिए बड़ी चुनौती था। 1763 में अंग्रेज अफसर मेजर ऐडम्स और मीरकासिम की सेनाओं के बीच उधवानाला में भीषण युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेजों की अप्रत्याशित विजय हुई।

धीरे-धीरे संताल परगना के दामिन-ई-कोह (जंगल) क्षेत्र में संतालों का बसना प्रारंभ हुआ, जिसे अंग्रेजों ने बढ़ावा दिया। पहाड़िया जनजाति ने प्रारंभ में संतालों का विरोध नहीं किया, परंतु बाद में अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति के कारण दोनों जनजातियों के बीच तनाव उत्पन्न हुआ। 1855 में संताल विद्रोह ने अंग्रेजी शासन की नीतियों की पोल खोल दी।

अंग्रेजों का आगमन

1765 में जब बिहार, बंगाल और उड़ीसा ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन आए, तब छोटानागपुर भी अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया। शुरूआती वर्षों में अंग्रेज प्रशासनिक व्यवस्था लागू करने में विफल रहे। 18वीं शताब्दी के अंत तक उन्हें राजस्व वसूली और विधि-व्यवस्था कायम करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

1793 में स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement) लागू होने के बाद अंग्रेजों का शोषणकारी शासन अधिक क्रूर हो गया। इसके विरोध में 1783 में ही तिलका मांझी ने भीषण विद्रोह कर स्वतंत्रता संग्राम की नींव रख दी।

बाहरी लोग स्थानीय शासन, व्यापार, न्याय और धर्म तक में हस्तक्षेप करने लगे। वे अब ‘दिक्कू’ के रूप में जाने गए। उनका आदिवासीकरण रुक गया और शोषण की प्रक्रिया ने नई दिशा ले ली। यह समय झारखंड के जनजातीय इतिहास में संघर्ष और बदलाव का आरंभिक चरण था।

Telegram
Facebook
WhatsApp