प्रस्तावना:
शकों और यूनानी शासकों के मध्यकाल में भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों पर एक और विदेशी शक्ति ने शासन किया—पार्थियन (Parthian), जिन्हें इतिहास में अक्सर पहलव कहा गया है। यद्यपि इनका शासन सीमित और अल्पकालिक रहा, लेकिन उन्होंने भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ा।
पार्थियों की उत्पत्ति:
- पार्थी या पहलव, ईरानी मूल की एक जाति थी
- इनका मूल स्थान पार्थिया (आधुनिक ईरान) था
- इन्होंने शकों और यूनानियों को पराजित कर भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में शासन किया
- इनका प्रवेश भारत में प्रथम शताब्दी ईस्वी के आसपास हुआ
भारत में पार्थियों का राज्य:
- पार्थियों ने मुख्यतः पंजाब और सिंध क्षेत्रों पर अधिकार किया
- इनका शासनक्षेत्र अफगानिस्तान, बलूचिस्तान से लेकर पश्चिमोत्तर भारत तक फैला था
- उन्होंने तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाया
प्रमुख पार्थियन शासक:
शासक का नाम | विशेषताएँ |
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गोंडोफेर्नेस (Gondophares) | सबसे प्रसिद्ध पार्थियन शासक, ईसाई परंपरा से जुड़ा |
अब्दगासेस, ओरामैस | अन्य शासक जिनका शासन तक्षशिला और आसपास तक सीमित |
गोंडोफेर्नेस का महत्व:
- गोंडोफेर्नेस के काल में भारत में ईसाई धर्म के आगमन की पौराणिक मान्यता जुड़ी है
- ऐसा माना जाता है कि संत थोमस (St. Thomas) नामक ईसाई प्रचारक भारत आए और उन्होंने गोंडोफेर्नेस के दरबार में कार्य किया
- तक्षशिला में मिले शिलालेख और सिक्के उनके शासन की पुष्टि करते हैं
- यह दिखाता है कि पार्थियन शासक धार्मिक सहिष्णु और बहु-संस्कृति को स्वीकारने वाले थे
शासन प्रणाली:
- पार्थियों ने स्थानीय भारतीय परंपराओं को स्वीकार किया
- सिक्कों पर यूनानी और खरोष्ठी लिपियों का प्रयोग किया
- प्रशासन में स्वतंत्रता थी, कई छोटे राजाओं ने उनकी अधीनता स्वीकार की थी
संस्कृति, कला और योगदान:
- पार्थियों ने ग्रीक, शक और भारतीय शैलियों का सम्मिलन किया
- तक्षशिला विश्वविद्यालय और बौद्ध धर्म का संरक्षण
- सिक्कों और स्थापत्य में मिश्रित प्रभाव दिखता है
- बौद्ध धर्म की प्रगति के लिए पार्थियों ने योगदान दिया
पतन के कारण:
- पार्थियों की सत्ता कभी केंद्रीकृत नहीं थी
- इन्होंने कई स्थानीय शासकों को स्वायत्तता दी, जिससे राज्य कमजोर हो गया
- इनके बाद कुषाणों का उदय हुआ, जिन्होंने पार्थियों को पराजित कर दिया
- कुषाण शासक कुजुल कडफिसेस ने पार्थियन राज्य का अंत किया
निष्कर्ष:
पार्थी शासक भले ही भारत में लंबे समय तक शासन न कर सके हों, लेकिन उनका महत्व इस बात में है कि उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में बहु-सांस्कृतिक वातावरण को और अधिक मजबूत किया। उनका शासन एक संक्रमण काल था, जिसने भारत को अगली महान शक्ति—कुषाणों—के लिए तैयार किया।